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वि॒वेष॒ यन्मा॑ धि॒षणा॑ ज॒जान॒ स्तवै॑ पु॒रा पार्या॒दिन्द्र॒मह्नः॑। अंह॑सो॒ यत्र॑ पी॒पर॒द्यथा॑ नो ना॒वेव॒ यान्त॑मु॒भये॑ हवन्ते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viveṣa yan mā dhiṣaṇā jajāna stavai purā pāryād indram ahnaḥ | aṁhaso yatra pīparad yathā no nāveva yāntam ubhaye havante ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒वेष॑। यत्। मा॒। धि॒षणा॑। ज॒जान॑। स्तवै॑। पु॒रा। पार्या॑त्। इन्द्र॑म्। अह्नः॑। अंह॑सः। यत्र॑। पी॒पर॑त्। यथा॑। नः॒। ना॒वाऽइ॑व। यान्त॑म्। उ॒भये॑। ह॒व॒न्ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:32» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (धिषणा) वाणी (मा) मुझको (विवेष) व्याप्त होती और (जजान) उत्पन्न करती है उसकी मैं (स्तवै) प्रशंसा करूँ जो (अह्नः) दिन से (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (पुरा) प्रथम (पार्य्यात्) पार पहुँचावे वा (यत्र) जिस व्यवहार में (अंहसः) अपराध से मुझको (पीपरत्) पार लगावे वा (यथा) जिस प्रकार से (नः) हम लोगों के अर्थ (यान्तम्) जाते हुए को (उभये) दूर और समीप में वर्त्तमान लोग (नावेव) नौका के सदृश (हवन्ते) पुकारते हैं, वैसे हम लोगों को सब लोग पुकारें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि उस वाणी और बुद्धि को ग्रहण करें, जो सब समय में दुष्ट आचरण से पृथक् रखके दुःख से नौका के सदृश पार उतारे ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यद्या धिषणा मा विवेष जजान तामहं स्तवै याह्न इन्द्रं पुरा पार्याद्यत्रांऽहसो मां पीपरद्यथा नो यान्तमुभये नावेव हवन्ते तथा नोऽस्मान्सर्व आह्वयन्तु ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विवेष) व्याप्नोति (यत्) या (मा) माम् (धिषणा) वाणी (जजान) जनयति (स्तवै) प्रशंसानि (पुरा) (पार्यात्) पारंगमयेत् (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्यम् (अह्नः) दिवसात् (अंहसः) अपराधात् (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (पीपरत्) पारयेत् (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मभ्यम् (नावेव) नौवत् (यान्तम्) गच्छन्तम् (उभये) दूरसमीपस्था जनाः (हवन्ते) आह्वयन्ते ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सा वाणी प्रज्ञा च सङ्ग्राह्या या सर्वदा दुष्टाचारात्पृथग्रक्ष्य दुःखान्नौवत्पारं नयेत् ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी त्याच वाणी व बुद्धीचे ग्रहण करावे, जी सदैव दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवून दुःखातून नौकेप्रमाणे पार पाडते. ॥ १४ ॥